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सोमवार, 8 अक्टूबर 2007

कंपनी के चंगुल में फँसता किसान

कांट्रैक्ट खेती की बात करें तो केन्द्र सरकार ने पहले ही अपनी कृषि नीति में कांट्रैक्ट खेती को जोड़ लिया है। उत्तार प्रदेश देश का 13वॉ ऐसा है जिसने कांट्रैक्ट खेती को मंजूरी दे दी है इसके साथ ही राज्य सरकार ने नई कृषि उत्पाद, विपणन-विकास, विनियमन और अवस्थापना एवं निवेश नीति घोषित कर दी है। निजी क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों के लिए कृषि के दरवाजे भी खुल गए हैं। राज्य सरकार ने कृषि उत्पादन मंडी अधिनियम-1964 तथा कृषि उत्पादन मंडी नियमावली-1965 में संशोधन करके नए प्रावधान कर दिए हैं, जिससे राज्य में अनुबंध खेती का रास्ता साफ हो गया।
राज्य सरकार ने कहा है कि देश में पहली बार उत्तार प्रदेश में 12 करोड़ किसानों के हित में इतना बड़ा प्रयोग किया गया है और इससे किसानों को जहाँ बिचौलियों के शोषण से मुक्ति मिलेगी, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में अभूतपूर्व पूंजी निवेश तथा बेरोजगारी दूर करने के नए रास्ते खुलेंगे। किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम तो मिलेंगे ही, उपभोक्ताओं को भी प्रतिस्पर्धा के कारण कम दामों पर अच्छा सामान मिल सकेगा।
मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि किसान और आम नागरिक के बीच में ये ठेला वाले, रेहड़ी वाले, थोक विक्रेता वाले बिचौलियें हैं तो ये बहुराष्ट्रीय कम्पनी वाले कौन हैं ये भी तो बिचौलियों का ही काम करने आये हैं। सरकार को सोचना चाहिए कि आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आ जाने से करोड़ों लोग बेरोजगार हो जायेंगें खासकर गरीब तबके के लोग भुखमरी के चपेट में आ जायेंगे। देशी हो या विदेशी ये सारी कम्पनियाँ केवल मुनाफा कमाना जानती हैं। ऐसा लगता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हम लोगों को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही हैं। इस नीति के बारे में सरकार को जरूर सोचना चाहिए, नहीं तो अगामी कुछ वर्षों के बाद किसान के साथ-साथ आम नागरिक भी शोषित होंगे।
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अगर अपने देश की बात करें तो पंजाब के किसानों से अनुबंध खेती करवा कर उन्हें अपने जाल में फंसा लिया गया है। अब वहां के किसान काफी परेशान हैं। वहां की आम शिकायत है की कम्पनियाँ कई बार किसानों को समझौते में तय किए गए मूल्य के हिसाब से भुगतान नहीं करती हैं। यह भी देखा गया है कि कम्पनियों ने किसानों को सिर्फ इसलिए उनका बकाया नहीं चुकाया कि अगले साल भी वे उसी कम्पनी को अपना माल बेचने पर मजबूर होंगे। विदेशों की बात करें तो फिलीपींस, जिंबाब्वे, अर्जेंटीना और मेक्सिको जैसे देशों का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहा है। अगर यही अनुबंध पूरे भारत देश में लागु हो जाय तो वह दिन दूर नहीं जब रोटी के लिए भी दूसरे देशों पर निर्भर रहना होगा।
दूसरी बड़ी आशंका यह जताई जा रही है कि अनुबंध खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जो तरीके अपना रहीं हैं उनसे जमीन की उर्वरता घटती है। निजी कम्पनियों की नजर सिर्फ और सिर्फ लाभ पर होती है। जाहिर सी बात है, ज्यादा-से-जयादा लाभ कमाने के लिए पैदावार बढ़ानी होगी, और पैदावार बढ़ाने के लिए हानिकारक रासायनिक खाद और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करना ही होगा। सिंचाई के लिए जमीन का सीना चीरकर पानी निकालना होगा। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी वजह से जमीन बंजर हो जाएगी।
अर्थशास्त्र समझने वालों का आकलन है कि अगर उत्तर प्रदेश में कांट्रैक्ट खेती शुरू हूई तो अगले पाँच सालों में वे इलाके रेगिस्तान में बदल जाएंगें जहाँ भू-गर्भ जल का स्तर लगातार नीचे खिसक रहा है। रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल होने से खेतों की उर्वरा शक्ति इतनी कमजोर हो जाएगी कि उसमें निर्यात योग्य गुणवत्ता वाली फसल पैदा नहीं होगी, परिणामस्वरूप कम्पनियाँ अपनी आदत के मुताबिक किसानों का साथ छोड़ देंगी। जैसे पंजाब, विदर्भ और आंध्र प्रदेश के किसान के साथ हुआ वहां के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गये हैं। किसानों को सावधान करते हुए कहना चाहता हूँ कि वे कम्पनियों द्वारा दिखाए जाने वाले सब्जबाग में न फंसे क्योंकि उसमें चार-पाँच साल तो फायदे के हैं, उसके बाद अंधेरा ही अंधेरा।
.संजीव ठाकुर - इलाहाबाद

अन्न-व्यवस्था को खतरा -डॉ वंदना शिवा

देश की खुदरा अर्थव्यवस्था पर रिलायंस और वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियों के कब्जे से इस अर्थव्यवस्था के लिए आसन्न खतरों के प्रति आगाह कर रही हैं -डॉ वंदना शिवा

'भारत खुदरा व्यापार-लोकतंत्र का देश है'। देश में चारों तरफ लोग अपनी क्षमता के अनुसार हजारों साप्ताहिक 'हाट' और 'बाजार' लगाते हैं। ये स्थानीय स्तर पर खरीदारी का सबसे सस्ता और सुलभ माध्यम हैं। इसमें कोई दलाल भी नहीं होता। हमारी गलियां वास्तव में ऐसे जीवन्त बाजार हैं जो लाखों लोगों की सुरक्षित जीविका की स्रोत हैं। वस्तुत: भारत में दुनिया की सबसे ज्यादा दुकानें हैं। हजार लोगों पर 11 खुदरा-दुकानें, जिनमें गांव की दुकानें शामिल नहीं हैं।

हमारी खुदरा-व्यापार की लोकतांत्रिक-व्यवस्था से करीब चार करोड़ लोगों को उच्चस्तरीय जीविका के साथ-साथ रोजगार मिलता है, जो कुल जनसंख्या का चार फीसद और कुल रोजगार का आठ फीसद है। यह पूरी तरह से आत्मनिर्भर व्यवस्था है, जिसमें पूंजी लागत कम से कम तथा विकेन्द्रीकरण का स्तर लगभग 100 फीसद है।
बड़ी जनसंख्या वाले देश में, जहां गरीबी का स्तर भी काफी ज्यादा है, वहां जैविक और आर्थिक अस्तित्व के लिए खुदरा-लोकतंत्र का यह मॉडल ही उपयुक्त है।
हमारी विकेन्द्रित और विविधता आधारित खुदरा-अर्थव्यवस्था पर अब धीरे-धीरे रिलायंस और वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियां हावी हो रही हैं। वे खुदरा व्यापार में तानाशाह बनने की कोशिश कर रही हैं और उत्पादन से लेकर विक्रय तक सारी व्यवस्था नियंत्रित करना चाहती हैं।

यह हमला सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों रूपों से किया जा रहा है। भारतीय खुदरा-लोकतंत्र को नीचा और वालमार्ट व रिलायंस की तानाशाही को ऊंचा साबित करने के लिए सुनियोजित तरीके से सांस्कृतिक हमला किया जा रहा है। इस हमले के लिए भाषा और लच्छेदार शब्दों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
खुदरा व्यापार के आत्म-निर्भर क्षेत्र को अब 'असंगठित' और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही को 'संगठित' क्षेत्र का नाम दिया जा रहा है। इसे देखकर कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि खुदरा-लोकतंत्र को खुदरा तानाशाही में बदलने का सीधा सा मतलब है- विकेन्द्रित राज्य व्यवस्था को संगठित-तानाशाही राज्य में बदलना।
भारतीय खुदरा-व्यापार आत्म निर्भरता और रोजगार के उच्च अवसर देता है, लेकिन आज तथाकथित विकास (एफडीआई) का मॉडल थोपने के लिए उसे भी अल्पविकसित बताया जा रहा है। इसी तरह व्यापार के देशी-प्रबन्धकों को 'दलाल' का नाम दिया जा रहा है और इन दलालों को खत्म करने के नाम पर चार करोड़ लोगों की रोजी छीनने की साजिश की जा रही है। रिलायंस और वालमार्ट जैसे बड़े दलालों से कोई सवाल पूछने वाला है क्या? वे तो अपने को किसानों का मुक्तिदाता कहते हैं, जबकि वे ही सस्ती चीजें खरीद कर किसानों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहे हैं। कंपनियों का तो यह उसूल ही है-''सस्ता खरीदो, मंहगा बेचो।'' थोड़े समय तक तो बाजार पर अपनी पकड़ बनाने के लिए और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच के सभी रिश्तों और विकल्प को खत्म करने के लिए ये कंपनिया सस्ते दामों पर सामान बेचेंगी और एक बार विकल्प खत्म हो गए तो वे किसानों को उत्पादनलागत का कम दाम देंगी और उपभोक्ता को सामान अपनी मर्जी की कीमतों पर देंगी। अर्थात् किसान और उपभोक्ता दोनों को भारी नुकसान।

'फूडवार्स' में छपे एक आलेख में डा. टिमलैंग ने आंकड़े देते हुए लिखा है कि वालमार्ट ने खाद्यान्न व्यापार में प्रवेश करते ही 10 साल के अन्दर ही दामों को 13 फीसद गिरा दिया। ऐसा कहा जा रहा है कि 2010 तक कुल फूड-रिटेलिंग के 10 फीसद पर अमरीका के केवल सात खुदरा व्यापारियों का कब्जा हो जाएगा, जिसमें वालमार्ट का हिस्सा बढ़कर 22 फीसद हो जाएगा। यूरोप में आने वाले 10 साल में 10 प्रमुख खुदरा संगठित व्यापारियों की भागीदारी 37 फीसद से 60 फीसद तक बढ़ जाएगी। इस सबके बीच पीसा जाएगा-किसान और छोटा खुदरा व्यापारी।

ब्रिटेन सरकार के 'प्रतिस्पध्र्दा आयोग 2000' की जांच से स्पष्ट हो गया था कि सुपरमार्केट जनता के हित के अनुकूल नहीं हैं, वे 27 गैर व्यापारिक तरीकों का इस्तेमाल करते हुए पाए गए थे, जिनमें उनका लागत से भी कम मूल्य पर खरीदना-बेचना भी एक तरीका था। इनमें पांच बड़े रिटेलर-टेस्कों, सेंसबरी, एएसडीएवालमार्ट, सेफवे, सोर्सफील्ड शामिल थे। सुपरमार्केट अपने सप्लायर के साथ एकतरफा व्यापारिक-संबंध रखते हैं। सप्लायर का हिस्सा 4-2 फीसद यानी बहुत कम होता है। कभी-कभी तो यह मुनाफा न के बराबर होता हैं क्योंकि मजबूरी में प्राय: वे चीजों को लागत मूल्य से कम दाम पर भी बेच देते हैं।

भारत के खाद्यान्न बाजार में विशाल कारपोरेटियों के आने से 65 करोड़ किसानों और चार करोड़ छोटे खुदरा व्यापारियों पर गाज गिरेगी। 2011 तक 6600 से भी ज्यादा बड़े स्टोर बनाये जाने की योजना है, जिसमें 40,000 करोड़ रुपये निवेश होने की सम्भावना है।

आने वाले चार साल में रिलायंस की भी 25 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा के निवेश से हजारों स्टोर खोलने की योजना है। वालमार्ट के पार्टनर भारती की भी योजना है कि वह अगले आठ साल में लगभग 12 हजार करोड़ रुपये का निवेश नए स्टोर बनाने में करेगा।

वालमार्ट के साथ गठजोड़ करने वाली भारत की भारती टेलीविंचर्स के सुनील मित्तल से जब वालमार्ट की मुनाफाखोरी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ''मैं वालमार्ट के कई स्टोरों पर गया हूं, लेकिन मैंने किसी भी आदमी को नाराज नहीं पाया। उसने लातिन अमेरिकियों को आठ डॉलर प्रति घंटे पर नौकरी पर रख रखा है, लेकिन फिर भी वे लोग नाराज नहीं हैं बल्कि उनके चेहरों पर हमेशा मुस्कुराहट रहती है।''
(पीएनएन)